Friday, December 9, 2011

जंगल को बना कर सूखे का ढेर अब वो माचिस बनाने वालों से कह रहे हैं
अपनी हदों में रहो, आग लगने का डरहैं
ैकल तक इन्ही माचिसों से जला कर आग तुमने भी बहुत हाँथ सेके हैं
और आज कह रहे हैं, देख कर यहाँ हमारा भी घर है
हम तो हर बार जले तुम्हारी लगाईं आग में, मौका तुम्हारा पहला है
अब शायद समझ सकोगे हमारे दिल का दर्द, जब दिल तुम्हारा दहला है
माहौल सूखे का है, हवाएं भी गर्म हैं, चिंगारी कहीं से भी लग सकती है
माचिस की तीली मिले न मिले, ये जंगल की आग है कभी भी भड़क सकती है
हम भुझाना भी चाहें तो हमारे बस में नहीं
तुम्हारी लगाईं आग के धुएं ने हमारी आँखों का पानी तक सुखा दिया
पर हो सके तो माफ़ करना ये हमवतनो
सच्चाई बयाँ करतेकरते भावनाओं मेंआकर गर दिल तुम्हारा दुखा दिया
वक़्त अभी भी है संभल जाओ ये आग का खेल बुरा है सबके लिए
वर्ना जंगल तो जलकर ही पनपा है कभी बदलाव तो कभी हक के लिए
हो सके तो कभी सोचना कि आखिर ये माहौल बना ही क्यूँ ???
हमने आतंकी पाले, जेलो मे परसी विरयानी
हर सैनिक कि विधवा रोई, आखों मे आया पानी
बीस खून करके भी वे सब छमादान पा जाते हैं
और शहीदों कि कुरवानी पर बादल छा जाते हैं!
उठो नया कानून मांग लो संसद कि दिवारो से
हत्यारो को छमादान अव नही मिले दरबारो से
इन को सीधा फाँसी टांगे वीर शहीदोंकि माएँ
या सिने पर गोलि मारे बस सैनिक कि विधवाये

Thursday, December 8, 2011

“मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जबसिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी केरूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”। नाथूराम गोड़से और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी राख उनके परिवार वालों को नहीं सौंपी गई थी। जेल अधिकारियों ने अस्थियों और राख से भरा मटका रेल्वे पुल के उपर से घग्गर नदी में फ़ेंक दिया था। दोपहर बाद में उन्हीं जेल कर्मचारियों में से किसी ने बाजार में जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह खबर एक स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई। इन्द्रसेन उस वक्त “द ट्रिब्यून” के कर्मचारी भी थे। शर्मा ने तत्काल दो महासभाईयों कोसाथ लिया और दुकानदार द्वारा बताई जगह पर पहुँचे। उन दिनोंनदी में उस जगह सिर्फ़ छ्ह इंच गहरा ही पानी था, उन्होंने वह मटकावहाँ से सुरक्षितनिकालकर स्थानीय कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर ओमप्रकाश कोहल कोसौंप दिया, जिन्होंने आगे उसे डॉ एलवी परांजपे को नाशिकले जाकर सुपुर्द किया। उसके पश्चात वह अस्थि-कलश 1965 में नाथूराम गोड़से केछोटे भाई गोपाल गोड़से तक पहुँचा दिया गया, जब वे जेल से रिहा हुए। फ़िलहाल यह कलश पूना में उनके निवास पर उनकी अन्तिम इच्छा के मुताबिक सुरक्षित रखा हुआहै।

Wednesday, December 7, 2011

1757 - पलासी की लड़ाई (?) . मीरजाफर ने 28000 भारतीय सैनिकों को ईस्ट इंडिया कंपनी के 300 सैनिकों के सामनेआत्मसमर्पण करने का आदेश दिया. जब 300 अँगरेज़ सैनिक 28000 हतप्रभ भारतीयों को बंदीबना कर ले जा रहे थे, तो लाखो लोग सडकों के दोनों और खड़े तालियाँ बजा रहे थे और तमाशा देख रहे थे.
-As quoted by Dr. Rajiv Dixit from the autobiography of Robert Clive.
आज फिर जब वालमार्ट देश मेंकिराने की दुकानेखोलने आ रहा है और हमें कोई फर्क नहीं पड़ता तो मुझे याद आ रहा है की सड़क के किनारे खड़े वो लाखों तमाशबीन सचमुच हमारे पूर्वज थे....
अमेरिका में वालमार्ट की शुरुआत के दस वर्ष के अन्दर ही आयोवा (IOWA) प्रान्त के 555 किराना दुकानें, 298 हार्डवेयर दुकानें, 290 बिल्डिंग मटेरियल दुकानें,161 जनरल स्टोर, 158 महिला प्रसाधन स्टोर, 150 जूता दुकानें एवं 110 मेडिकल स्टोर बन्द हो गये…। (Source: Iowa State University Study)

Monday, December 5, 2011

ऊधम सिंह के अन्तिम शब्द थे -
“मैं परवाह नहीं करता, मर जाना कोई बुरी बात नहीं है। क्या फायदा है यदि मौत का इंतजार करते हुए हम बूढ़े हो जाएँ? ऐसा करना कोई अच्छी बात नहीं है। यदि हम मरना चाहते हैं तो युवावस्था में मरें। यही अच्छा है और यही मैं कर रहा हूँ।
“मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ।”

Sunday, December 4, 2011

किसे पुकारें?
जितने फन
उतनी फुफकारें,
इस संकट में किसे पुकारें?
सभी
यहाँ हैं जहर उगलते,
बात-बात में रोज़ उबलते,
जितने सर उतनी तलवारें,
इस संकट में किसे पुकारें?
कौन
यहाँ है खेवनहारा,
कौन लगाए हमें किनारा,
टूट गई सबकी पतवारें,
इस संकट में किसे पुकारें?
सभी
खून में सने हुए हैं,
बिना वजह ही तने हुए हैं,
गूँज रही सबकी ललकारें,
इस संकट में किसे पुकारें?
- मधुसूदन साहा