Saturday, December 1, 2012

अंग्रेजी कि बैशाखिया:


अंग्रेजी के प्रति हमारे एकांगी प्रेम का परिणाम ये हुआ है कि भारत अपने पुराने मालिक इंग्लैंड से और उसके नए उतराधिकारी अमेरिका से एक पिछलग्गू कि तरह काफी अच्छी तरह जुड गया है, लेकिन बाकि दुनिया से उसके अच्छे रिश्ते कायम नही हो पाए हैं|अंग्रेजों के कुछ पुराने गुलाम देशों जैसे पकिस्तान , बर्मा , लंका, घना आदि और जहाँ अंग्रेज जाकर बस गए थे ऐसे देशों जैसे अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि तो छोड़ कर दुनिया के किसी भी देश में अंग्रेजी का प्रयोग नही होता, और पुराने गुलाम देशो में भी अंग्रेजी का प्रयोग सिर्फ नौकरशाह और अंग्रेजी तालीम-याफ्ता लोग करते हैं.. उनकी संख्या प्राय: 2% से भी कम होती है|

अंग्रेजी को विश्व भाषा मान लेने का सीधा दुष्परिणाम यह हुआ है कि दुनिया के हर देश के साथ हम अंग्रेजी में व्यवहार करते हैं चाहे वहाँ कि भाषा जर्मन हो, रुसी हो, चीनी हो, अरबी हो या फ़ारसी हो| हर रोग का हमारे पास एक ही इलाज है -जमाल घोटा |इसी का नतीजा है कि जब विजय लक्ष्मी पंडित जब राजदूत का पद ग्रहण करने रूस गई तो उनके अंग्रेजी में लिखे परिचय पत्र को स्टालिन ने उठा कर फेंक दिया और पूछा कि क्या आपकी अपनी कोई भाषा नही है?
हमारे देश के राजदूत को जब किसी देश में नियुक्त किया जाता है तो वो उस देश कि भाषा नहीं सीखते सिर्फ अंग्रेजी से काम चला लेने कि असफल कोशिश करते रहते हैं| उस देश के राजनीतिज्ञ क्या सोचते हैं, उस देश कि जनता का विचार प्रवाह किस तरफ जा रहा है, उस देश के अखबार क्या लिख रहे हैं, ये सब हमारे राजदूतों तो तभी पता चल सकता हैं और जल्दी पता लगा सकता है जब वो वहाँ कि स्थानीय भाषा को जानते हो| प्राय: होता यह है कि या तो दुभाषिये के जरिये सूचनाएं इकठ्ठी करते हैं या फिर तब तक हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहते हैं जब तब तक लन्दन या न्यूयोर्क के अंग्र्रेजी अखबार उन्हें पढ़ने को ना मिले |वे अंग्रेजी कि बैसाखियों के सहारे चलते हैं, नकली बैसाखियाँ असली पैरों से भी अधिक प्यारी हो गयी हैं| जो कौम बैसाखियों के सहारे चलती है वह हजार साल कि यात्रा के बावजूद भी खुद को वहीँ खड़ा पाती है, जहाँ से उसने पहले यात्रा शुरू कि थी........

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