Friday, April 5, 2013

Tuesday, April 2, 2013

ये मनमोहन सिंह ने कैसा समझोता किया

Rajiv Dixit: जरूर जरूर पढ़े मित्रो ! ये मनमोहन सिंह ने कैसा समझोता किया ________________________________________ ऐसे ऐसे समझोते किये globalization के नाम पर कि आप चोंक जाये गये ! एक समझोते के कहानी सुने बाकि विडियो में है ! एक देश उसका नाम है होललैंड वहां के सुअरों का गोबर (टट्टी) वो भी 1 करोड़ टन भारत लाया जायेगा ! और डंप किया जायेगा ! जब मनमोहन सिंह को पूछ गया के यह समझोता क्यूँ किया ???? तब मनमोहन सिंह ने कहा होललैंड के सुअरों का गोबर (टट्टी) quality में बहुत बढ़िया है ! फिर पूछा गया कि बताये quality में कैसे बढ़िया है ??? तो मनमोहन सिंह ने कहा कि होललैंड के सूअर सोयाबीन खाते है इस लिए बढ़िया है !! जैसे भारत में हम लोग गाय को पालते है ऐसे ही हालेंड के लोग सूअर पालते है वहां बड़े बड़े रेंच होते है सुअरों कि लिए !!! फिर पूछा ये सोयाबीन जाता कहाँ से है ??? तो पता चला भारत से जाता है !! मध्यपरदेश से जाता है !!! पूरी दुनिया के वैज्ञानिक कहते अगर किसी खेत में 10 साल सोयाबीन उगाओ तो 11 वे साल आप वहां कुछ नहीं उगा सकते अब दिखिए इस मनमोहन सिंह ने क्या किया !??? होललैंड के सुअरों को सोयाबीन खिलाने के लिए पहले मध्यप्रदेश में सोयाबीन कि खेती करवा सैंकड़ो एकड़ जमीन बंजर कर दी ! और अब होललैंड के सूअर सोयाबीन खाकर जो गोबर (टट्टी) करेगे वो भारत में लाई जाएगी ! वो भी एक करोड़ टन सुअरों का गोबर(टट्टी ) और ये समझोता एक ऐसा आदमी करता है जिसको इस देश में best finance minster का आवार्ड दिया जाता है !! और लोग उसे बहुत भारी अर्थशास्त्री मानते है !! शायद मनमोहन सिंह के दिमाग में भी यही गोबर भरा है !! एक कमेटी ऐसी नहीं है भारत में जो इस बात कि जांच करती ho क्या समझोता हुआ है और उसके क्या परिणाम होने वाला है !! एक कमेटी ऐसी नहीं है! और सुनो दोस्तो इस मनमोहन सिहं नो गौ माता का मांस निर्यात करने वाले देशो मे भारत को 3 नमबर का देश बना दिया है । कितनी शर्म की बात है रोज हमारे देश कत्लखानो मे 50 हजार गाय काट दी जाती है । गौ माता को काट कर निर्यात किया जा रहा है और सुअर का गौबर भारत मे लाने के समझोते किये जा राहे है । और एक खास बात दोस्तो । आपके घर मे अगर दादा -दादी हो तो उनसे पुछे । क्या उन्होने अपने बचपन मे कभी सोयाबीन खाया या अपने घर में बनाया ? ? 100% उनका जवाब होगा नही । कारण क्या ? ? कारण यही है भारत सोयबीन की खेती 25,30 साल पहले शुरु की और इसका बीज विदेशो से मंगवाया गया । क्यों बाहर के देशो को सोयाबीन अपने देश में पैदा कर अपनी जमीन को खराब नही करना था । इसलिये उन्होने भारत सरकार समझोता किया । और एज़ेंट मनमोहन सिहं ने इसकी खेती भारत मे करवानी शुरु । ताकि अपनी जमीन खराब कर उनके सुअरो के लिये सोयाबीन भेजा जाये और उनको खाकर उनके सुअर जो गोबर (ट्टी) करे उसके भारत लाया जाये । और हम मूर्ख लोग बिना कुछ जाने समझे इधर उधर की बाते सुनकर इसको बहुत भारी अर्थशास्त्री कहें । सोयबीन में जो फ़ैट है वो इतना भारी और खतरनाक है एक बार शरीर के अंदर जाये अंदर ही जमा हो जाता है । और बीमारिया पैदा करता है । सिर्फ़ इसकी खेती भारत में शुरु करवाने के लिये झुठा प्रचार किया गया । कि सोयाबीन में य़े है वो है और पता नही क्या क्या है । http://www.youtube.com/watch?v=lZOHx8hRJM4&feature=plcp सोयबीन का तेल कितना खतरनाक है जानने के लिये यहां click करे । http://www.youtube.com/watch?v=sQPOAjKpLdM&feature=plcp मनमोहन सिन्ह के दिमाग मे सुअर का गौबर भरा है जानने के लिये यहां click करे । http://www.youtube.com/watch?v=lZOHx8hRJM4&feature=plcp अमर शाहीद राजीव दीक्षित जी की जय । शर्म नही शेयर करे । Original Facebook Status: http://www.facebook.com/home.php?#!/profile.php?id=245769338862633&v=wall&story_fbid=556270454413623 Sent via TweetDeck (www.tweetdeck.com)

Sunday, March 31, 2013

हमारे महान पूर्वज

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हमारे प्राचीन पूर्वज बीसवीं शताब्दी से उतना ही दूर थे जितना कि सुपरसोनिक से बैलगाड़ी और रफ़्तार भी वही| हर चीज़ ढीली ढली थी, ये लोग देखने में गंवार लगते थे | दाढ़ी बही हुई बाल बिखरे हुए, विचार उलझे हुए| पर वे बीसवीं शताब्दी के लोगों कि तरफ ऊँगली उठा कर कह रहे थे कि देखो इन मूर्खो को देखो| वे अधिक खाने के लोभ में अपने समुन्द्र और आसमान तक को खा जाते हैं, वे अपने भविष्य को खाते जा रहे हैं,और, फिर भी अपने को विज्ञानी समझते हैं| उनको इस तरह कहने का अधिकार भी था , क्योंकि उनकी नदियाँ सिर्फ बरसात में ही मैली होती थी, उनका आसमान सिर्फ आंधी चलने पर ही मैला होता था, उनके विचार सिर्फ आवेग कि प्रखरता में ही मैले होते थे, उनका शरीर सिर्फ काम करते समय ही मैला होता था| उनकी आत्मा तो मैली होती ही नहीं थी| वे हँसते थे तो हंसी में उनका आह्लाद झलकता था, दर्प झलकता था, व्यंग्य टपकता था, पर मन कि मलिनता नहीं झलकती थी| वह उनके दिल दिमाग में कहीं थी ही नहीं|

वो कम दुखी होते थे क्यूंकि उनकी दुःख कि परिभाषा कुछ अलग थी| हमारी परिभाषा के बहुत से दुखों को वे चुप चाप पी जाते थे, मानो वे दुखी हों ही नहीं| पर जब दुःख उनकी परिभाषा के अनुसार भी दुःख बन जाता था तो उससे आंसुओं के स्थान पर दर्शन टपकने लगता था| 
उनके चेहरे पर ज्ञान तेज और तुष्टि बन कर चमकता था|उनकी जरूरतें बहुत कम थी वे सब कुछ अपने लिए नहीं चाहते थे| पेट भरने के बाद उनकी भूख तेज नहीं होती थी| वे बहुत कम चीजों से डरते थे, बहुत अधिक चीजों पर भरोसा करते थे और घृणा तो किसी भी चीज़ से नहीं करते थे|
वे कुछ जानने के लिए नहीं सोचते थे| जाने हुए का आनंद उठाने के लिए सोचते थे| उसे जीवन में उतरने के लिए सोचते थे|सोचते रहने के लिए सोचते थे| उन लोगों को दुनिया कि हर बात मालूम थी| जो हो चुकी थी वह भी, जो होने वाली थी वह भी और जो होने वाली थी वह भी , जो नहीं हो सकती थी वह भी| उनकी आँखों के आगे तीनों काल और सातों लोक पलक झपकते ही खुल जाते थे|
देखने का उनका तरीका भी कुछ कम अजीब नहीं था| हम कुछ देखने के लिए आँखे फाड़ फाड़ कर , चश्मे और दूरबीन लगा कर देखते हैं और वे देखने के लिए आँखे बंद कर लेते हैं| उनका मानना था कि ब्रह्माण्ड बाहर नही है | सारा ब्रह्माण्ड उनके भीतर भरा हुआ है| काल उनके भीतर छुपा हुआ है|बाहर तो मात्र उसकी छांया है| यह आसान सी बात भी इतनी गूढ़ थी कि इसे समझने के लिए गुरु का होना और उसके मुंह से इसे सुनना जरुरी था| उनकी आँखें कुछ इस तरह बनी थी कि उनकी पुतलियाँ पलक झपकते ही बाहर से भीतर कि तरफ लौट जाती थी और कोई चीज़ दुनिया में कहाँ है, क्यों है, है या नहीं है,होगी या नहीं होगी, यह सब उन्हें दिखाई देने लगता था |
वे अपनी दुनिया कि चिंता ना करते हुए भी अपनी दुनिया से अधिक हमारी दुनिया के बारे में सोच रहे थे- पर्यावरण के ध्वंस पर, प्राकर्तिक साधनों के अपव्यय पर, उपभोक्ता संस्कृति कि विकृतियों पर, विज्ञान के पागलपन पर, मानव मूल्यों के ह्रास पर, संवेदन शून्यता कि विडंबना पर और भाषा के दुष्प्रयोग पर| इस दृष्टि से वे आज के महान से महान वैज्ञानिक की तुलना में भी अधिक दूरदर्शी थे|
वे कह रहे थे कि संसार में ऐसा तो कुछ है ही नहीं जिसमे ईश्वर का निवास न हो|उसे पाने के लिए किसी देवालय या मस्जिद या गुरूद्वारे या गिरजा में जाने कि जरुरत नहीं है| इसके लिए सच्चा मानव प्रेम ही काफी है| पर यह मानव प्रेम खोखला शब्द नहीं है| यह तुम्हारे आचार से जुड़ा है और इस आचार का एक महत्वपूर्ण पक्ष आर्थिक है| तुम त्यागपूर्वक भोग करो| अपने पास अतिरिक्त संचय न करो| लोभ में अंधे न बनो| पैसा किसी का हुआ ही नहीं है|